महबूब के नाम
ग़ज़ल कहूँ या गीत सुनाऊँ कहो कि क्या सौग़ात करूँ
सामने तुम बैठे हो मेरे तुम्हीं कहो क्या बात करूँ।
झुकी हुई आँखों की ख़ुशबू दिल में आन समायी है,
याद आ गए दर्द पुराने, किससे अब फ़रियाद करूँ।
हाय तब्बसुम का वो जादू अब भी कितना दिलकश है
मिटे सभी वो रंज पुराने क्या उनकी अब बात करूँ।
तब्बसुम = मुस्कान
साथ बितायी शामों की फिर याद सताने आयी है,
समझ नहीं आता अब मुझको क्या भूलूँ क्या या करूँ।
आँखें तुमको देख रही हैं, जुबाँ नहीं पर उनके पास,
आँखें बोल नहीं सकतीं अब क्या उनकी मैं सिफ़ात करूँ।
सिफ़ात = तारीफ़, गुण
गीतों, ग़ज़लों, कविताओं में रूप समाए न जिसका,
शायर सभी यही कहते हैं क्या उसकी मैं बात करूँ।