काले अजगर सी फैली,
लम्बी-लम्बी वीरान सड़कें,
दोनों तरफ़ खड़ी,
ख़ामोश, धूल भरी गाड़ियाँ।
ऐसा लगता है जैसे,
क़तार-दर-क़तार,
झुका खड़ा है आदमी।
रुकी हुई ज़िन्दगी का बोझ,
अपने थके कंधों पर लिये,
गुम-सुम सा है वो दूर का मंदिर,
जहाँ से सबेरे-सबेरे।
घंटियों की आवाज़ आती थी,
थम गयी हैं,
खेलते बच्चों की किलकारियाँ,
नहीं दिखाई देते अब।
बेंच पर बैठे गपियाते बुजुर्ग,
एक दूसरे का दुःख-सुख बाँटते,
और गप-शप करती औरतें,
जो कभी न ख़त्म होने वाले कामों से,
कुछ लम्हें चुरा शाम को मिलती थीं।
ज़िंदगी सिमट गयी है जैसे,
चार दीवारों के बीच,
रुकी हुई एक मशीन की तरह,
ये ज़िंदगी फिर चल पड़ेगी।
नज़र आएँगे फिर,
भारी बस्तों के साथ बच्चे,
स्कूल जाते हुए,
वापस उतर आएगी फिर,
सड़कों पर भीड़।
बस की क़तारों में खड़े,
औरतें, बच्चे और जवान,
ज़िंदगी की जद्दो-जहद से जूझते,
मेहनतकश इंसान,
इंतज़ार है उस सुबह का।