किसी भी न्यूज़ चैनल ने जो न दिखाई,
वो कहानी सिर्फ़ मैंने आपको सुनायी।
गाँव में अचानक कल शोर मच गया,
मिश्रा जी के घर एक चोर घुस गया।
गली के छोर पर, बरगद के नीचे,
मंदिर के आगे, घूरे के पीछे।
एक लज्जित सा, जर्जर मकान था,
वही मिश्रा जी का निवास स्थान था।
रात के अंधेरे में, कुछ पाने के फेरे में,
नाली लांघ कर, दीवार फाँद कर।
एक अभागा घर के अंदर आ गया,
अंदर तो आ गया पर चकरा गया।
घर के बीसियों चक्कर लगाये,
कुछ नक़द, या सामान मिल जाये।
कमरे में ताका, संदूक में झांका,
पर कुछ होता तो नज़र आता।
यहाँ था कई दिनों से ही फ़ाका।
कमरे थे ख़ाली और डब्बे छूछे,
इस घर को तो भिखारी भी न पूछे।
हाय,व्यर्थ ही यहाँ समय गँवाया,
कुछ भी सामान हाथ न आया।
पर जब ख़ाली बर्तन खड़खड़ाये,
तो घर के दोनों प्राणी हड़बड़ाये।
मिसराइन फड़फड़ायीं, बदहवास,
उनकी तो जैसे अटक गयी साँस।
मिश्रा जी पत्नी से बोले, “भागवान्
क्यों होती हो व्यर्थ में ही परेशान?
कोई यहाँ भला क्या लेने आएगा?
आया तो दीवारों से सर ही टकराएगा।”
पर जब पानी का मटका गिर कर टूटा,
तो मिसराइन का बेबसी भरा ग़ुस्सा फूटा।
“कलमुँहे। नासपीटे। सत्यानास हो तेरा।
अरे, बीस रुपए का लगा दिया फेरा।”
बची-खुची सम्पत्ति का देख कर विनाश,
मिश्रा जी हुये अत्यंत दुखी और हताश।
फिर यकायक गर्माये और आया ग़ुस्सा,
पर बाहर आए तो लगा ज़ोर का घिस्सा।
चोर को देखा तो बस देखते रह गये,
पुराने शिष्य को सामने देख खड़े रह गये।
शिष्य को देख अंदर का शिक्षक जागा,
फ़ौरन एक प्रश्न गोली की तरह दागा।
“अरे तुम? तुम तो थे मेरे ही विद्यार्थी
निकाल रहे हो मेरी शिक्षा की अर्थी?
क्या यही था मैंने तुमको सिखाया?
ये दिन देखने को था तुम्हें पढ़ाया?”
शिक्षक को देख शिष्य घबरा गया,
कलेजा निकलकर मुँह को आ गया।
पहले घबराया, फिर सर झुकाया,
मुँह से पर कुछ भी न कह पाया।
फिर हिम्मत जुटाकर आगे आया,
गुरु के चरणों में शीश झुकाया।
हाथ जोड़ गुरु से रोता हुआ बोला,
दुर्भाग्य का दुःख भरा पिटारा खोला।
हाय। पता न था भाग्य ये दिन भी लायेगा,
गुरु के सम्मुख यूँ मुँह काला हो जायेगा।
बेकारी और ग़रीबी ने कर दिया बेहाल,
वर्ना हुआ करता था कभी मैं भी ख़ुशहाल।
शहर में छोटा सा घर हुआ करता था,
दो बच्चों की किलकारियों से चहकता था।
जब से महामारी का दौर देश में आया,
हम जैसों पर दुर्दिन का बादल मंडलाया।
काम हुआ बंद, मालिक ने निकाल भगाया
न रहा वहाँ ठौर तो अपना गाँव याद आया।
अब शहर में बिना ठिकाने के कैसे रहता,
कब तक अपने बच्चों की भूख सहता।
सो धूप में, जलते पाँव और नंगे सर
निकल पड़े बेबस हम सड़कों पर।
मुसीबत में कोई हमारे काम न आया,
जिस पर भरोसा था उसने मुँह फिराया।
सैकड़ों मीलों का सफ़र कर हमने,
अपने गाँव में अपना सर छुपाया।
पर यहाँ भी वही हाल, हर कोई बेहाल,
जहाँ देखो भूख, बेकारी और अकाल।
शहर में भी हमें खाने के पड़ रहे थे लाले,
यहाँ भी बच्चों को नहीं दे पाया दो निवाले।
सो ग़रीबी, भुखमरी और बेकारी का मारा,
लाचारी, मजबूरी और क़िस्मत से हारा।
निकल पड़ा रात के अंधेरे में, मुँह छुपाये,
कहीं कुछ बच्चों के नसीब से मिल जाये।
पर आपको इस हाल में देखा तो पाया,
आप पर भी है इन्हीं दुर्दिनों का साया।
शिष्य की कथा से अति व्यथित हो गये,
गुरु जी के दोनों नयन अश्रुपूरित हो गये।
शिष्य से बोले, “क्या बताऊँ मैं तुमको
यहाँ पर मेरा हाल तो मालूम है सबको।
विद्यालय पहले ही लगभग बंद हो गया था,
उसका गौशाला में रूपांतरण हो गया था।
अब कोई विद्यार्थी भूले-भटके आता है,
तो कुछ न कुछ श्रद्धापूर्वक दे ही जाता है।
और हमें वैसे भी कितनी आवश्यकता है,
जैसे-तैसे कर के गुज़ारा हो ही जाता है।”
गुरु व शिष्य दोनों आमने-सामने खड़े थे,
अपनी-अपनी व्यथा में लिप्त मौन पड़े थे।
शिष्य ने पहले व्याप्त मौन को तोड़ा,
गुरु के सामने हाथ जोड़ कर बोला।
“आपका शिष्य हूँ, शिष्य-धर्म निभाऊँगा,
चिंता न करें, मैं आपके काम आऊँगा।
किसी और घर जाऊँगा, वहाँ जो पाऊँगा,
उसमें से आधा आपको दे जाऊँगा।”