क़त्ल का फ़रमान
हो गया फिर क़त्ल का फ़रमान देखिये,
नहीं अब किसी को जान की अमान।
अंधेरे हो रहे रौशनी पर फिर क़ाबिज़ यहाँ,
कब तक रहेगा रौशन ये मेरा मकान, देखिये।
क़ाबिज़ = हावी होना, क़ब्ज़ा करना
शोलों को हवा देना उनका तो खेल था,
पर जो जल गयी वो मेरी दुकान, देखिये।
हो गया महँगा यहाँ गुज़र का हर सामान,
बिक रहा है जो सस्ता वो ईमान, देखिये।
लेकर चले जो मक्तल से तो मैंने यूँ कहा,
बाक़ी है अब भी थोड़ी सी जान, देखिये।
मक्तल = वधस्थल
कोई नहीं है हद उसकी हैवानियत की ‘दिलीप,’
कहता है फ़ख़्र से ख़ुद को जो इंसान, देखिये।