Mujhe Kuch Kehna Hai
ISBN 9788119221370

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एक गुज़ारिश कोविड काल में विस्थापित मज़दूरों पर

हमें भी देखिये, हम भी हैं अहले वतन,

इसी मिट्टी में हुआ है हमारा भी जनम,

हवा, पानी, धूप और बारिश ने,

यहीं पाला है हमें, बीता यहीं हमारा बचपन।

हर गाँव, हर शहर, हर बस्ती हर वीराने में,

हर खेत, हर बाग, हर मिल, हर कारख़ाने में,

गोशे-गोशे में है बसी हमारी धड़कन,

जो सुनाई देती है इनमें, है हमारी सरगम।

वो जो इक ख़्वाब इस मुल्क ने बरसों पहले देखा था,

उसकी ताबीर में हमने भी बहाया है पसीना,

दिए हैं अपने बाजू, अपने कंधे, अपना सीना,

वो जो सतरंगी सपने थे एक बेहतर कल के,

जो कि हमारी आँखों में बसते थे कभी।

जिनकी ख़्वाहिश में हमने कड़ी धूप में गुज़ारे हर दिन

जाने कहाँ, कब, कैसे खो गए वो सारे हसीन मंजर,

रह गयी सीने में उजड़े ख़्वाबों की जलन।

खड़े हैं आज भी देखो हम जहाँ खड़े कल थे,

रोटी के दो टुकड़े तब भी हमें मयस्सर न थे,

अब भी मिट न सकी भूख की जलन।

पेट की आग हमें खींच कर ले आयी थी यहाँ,

छोड़ आए हम बेबस अपना गाँव और वो अपना मकाँ,

अब इतनी इनायत कर दो, जो न दे सको रोटी,

फिर से मिल जाए हमें अपने गाँव की मिट्टी।

हो सके तो भिजवा दो हमें अपने वतन,

चल पड़े हैं अब जो हम तो न रुकेंगे ये कदम,

हमें भी देखिये, हम भी हैं अहले वतन।