एक दिन सबेरे-सबेरे,
एक हाकिम को इक ख़याल आया,
और ख़याल आते ही, फ़ौरन से पेश्तर,
ख़ास-ओ-आम मुसाहिबों को बुलवाया।
फिर निहायत संजीदगी से फ़र्माया,
एक अर्सा हो गया है मुझको,
सियासत में उलझा रहा था,
तख़्त के मुद्दे सुलझा रहा था,
जो मुख़ालिफ़ थे मेरे, मिट गये,
सियासत की बिसात पर पिट गये।
मिट गए वे, जो थे मेरे पहलू में खार,
बाद मुद्दत है मुझे सुकून-ओ-क़रार।
अब मेरा आपसे है एक सवाल,
ज़रा बताइए तो मेरी रियाया का हाल,
ज़रूर आपने रखा होगा अवाम का ख़याल,
यक़ीनन, रियाया होगी निहायत ख़ुशहाल,
फिर भी पूछता हूँ आप से, बताइये,
मेरी रियाया का हाल सुनाइये।
सुनकर हाकिम का अजीबोग़रीब फ़र्मान,
सभी थे परेशान, मुसाहिब ख़ास-ओ-आम,
परेशान क्या, अरे, मच गयी थी खलबली,
किसी की गिरी पगड़ी तो किसी की कलगी।
खिंचा सन्नाटा, किसी को जवाब न सूझा,
तो हाकिम ने वज़ीर-ए-आज़म से पूछा -
मेरी पीठ पीछे ये क्या चल रहा है?
लगता है, कुछ दाल में है काला,
या है कुछ बड़ा गड़बड़ घोटाला,
लगता है मुझे ही कुछ करना पड़ेगा,
रियाया से मिलने ख़ुद निकलना पड़ेगा।
किया जाए फ़ौरन सफ़र का इंतज़ाम,
और किया जाए हमारे दौरे का ऐलान-
“हम हर शहर, हर गाँव, हर बस्ती जाएँगे,
अवाम के दुःख-दर्द में हाथ बटाएँगे,
उन्हें भी अपने मन की बात सुनाएँगे।”
सुनकर मुसाहिब हुए और भी परेशान,
खड़े थे सब हक्के-बक्के और हैरान।
सब का दहशत से था बुरा हाल,
उठा था ज़िंदगी और मौत का सवाल,
ज़रूरी है हाकिम को अवाम से दूर रखना,
इसी से होता है गुज़र-बसर अपना।
क़हर टूटेगा हम पर, क़हर।
कहीं ऐसा जो हो गया अगर।।
अरे, रियाया से ख़ुद मिले हाकिम।
हर्गिज़ नहीं उठा सकते हम ये जोखिम।
पर कौन है ऐसा जो सामने आता?
किसमें हिम्मत के हाकिम को समझाता।
तब फिर कहीं पीछे से एक आवाज आई,
एक पुराने, बुज़ुर्ग मुसाहिब ने हिम्मत दिखाई,
“हुज़ूर,अगर हो इजाज़त तो सामने आऊँ
कुछ अर्ज़ करूँ जो जान की माफ़ी पाऊँ।”
पुश्तों से हुज़ूर का नमक खाया है,
हुज़ूर की बुलंदी ही हमारा सरमाया है।
जहाँपनाह, है बहुत ही नेक आपका इरादा,
रियाया को कौन चाहता है आपसे ज़्यादा?
और फिर आपकी सल्तनत की क्या बात है।
जहाँ तक नज़र जाती है, आपका राज है।
अब हर शहर, हर गाँव तो जाना न होगा मुमकिन,
हुज़ूर, इसमें तो लग जाएँगे बेशुमार दिन।
और फिर है नहीं ये ख़तरे से भी ख़ाली,
ख़ाली तख़्त पाकर उठ खड़े होंगे बवाली,
नहीं-नहीं हुज़ूर, ये क़तई मुनासिब न होगा,
ये तो बेवजह ख़तरा मोल लेना ही होगा।
इजाज़त हो तो पेश करूँ एक तजवीज़,
है ये बहुत ही माक़ूल-ओ-मुनासिब तरकीब,
तो हुज़ूर, अगले महीने मुनक्किद किया जाए दरबार,
मुल्क की तमाम रियाया को होगा हुज़ूर का दीदार।
हम सब आपके नमक-ख़्वार हर तरफ़ जाएँगे,
अवाम को हुज़ूर की ख़्वाहिश बतलाएँगे,
दरबार में हाज़िरी का फ़रमान सुनाएँगे।
सुनकर हाकिम हौले से मुस्कराया,
उस पुराने, बुज़ुर्ग मुसाहिब को पास बुलाया,
“बेशक आप हैं निहायत ही दानिशमंद
हमें आयी आपकी तजवीज़ बेहद पसंद।
फ़ौरन दरबार के इंतज़ामात करवाइये
इसकी ज़िम्मेदारी भी आप ही उठाइये।
पर एक बात बताइये -
बहुत ज़्यादा है मेरी रियाया की तादाद
कैसे शरीक होगा हर शख़्स जिसे करनी हो फ़रियाद?”
बूढ़ा मुसाहिब मुस्कराया,
“मुसीबत टल गयी,” यक़ीन आया।
हुज़ूर बिलकुल दुरुस्त फ़रमाते हैं,
हम एक और तरकीब अपनाते हैं,
हर इलाक़े से एक-एक नुमाइंदा बुलाते हैं।
हर नुमाइंदा अपने इलाक़े में जाएगा,
अवाम की तकलीफें आपके हुज़ूर में लाएगा,
हाकिम मुसाहिब की बातों में आ गया,
अवाम से ख़ुद मिलने का ख़याल टाल गया।
आख़िरकार कामयाब हुई मुसाहिबों की साज़िश,
रह गयी हाकिम की अवाम से मिलने की ख़्वाहिश,
फिर वही हुआ जो कि होना था,
नुमाइंदों को मुसाहिबों का ही होना था।
उनके चुने नुमाइंदों ने वही दोहराया,
जो उन्हें मुसाहिबों ने था सिखलाया,
हाकिम भी ख़ुश, मुसाहिब भी ख़ुश,
और अवाम तो हर हाल में खुश।
और, इस तरह शुरू हुई इक नयी रवायत,
जिसे बाद में कहा गया गया जम्हूरियत।
अब लोग हाकिम से नहीं मिल पाते हैं,
सिर्फ़ अपने नुमाइंदों को चुन पाते हैं,
और नुमाइंदे, ये अवाम के बंदे,
जब दरबार में जाते हैं,
तो अवाम को भूल जाते हैं।