न मक़ाम चाहिए, न मुझे अंजाम चाहिये
बस तेरा जलवा-ए-नूर सुबहो-शाम चाहिये।
काबा-काशी भी न दे सके मुझे
ऐसा सुकूने-रूह-ओ-आराम चाहिए।
ज़माने की बदी से जो महफ़ूज़ रख सके
इस दिल को इक ऐसा निगहबान चाहिये।
बढ़ गयीं हैं इस क़दर ज़माने की तल्खियाँ
तेरे रहमो-करम का मुझे ईनाम चाहिये।
तीरो-तफ़ंग देख के शायर ने यूँ कहा
वहशियों की भीड़ में इक इंसान चाहिये।