कैसी है यह धूल, ये कैसा बवंडर है?
ये कौन सी फ़ौज है जो बढ़ी आती है हमारे जा़निब?
जिधर तक नज़र जाती है, दिखता है एक हुजूम,
कि जैसे बढ़ा आता हो कोई इंसानी दरिया।
बंद कर दो दरवाज़े, रोको, मत आने दो शहर में,
ये आये तो ग़लीज़ करेंगे शहर की सड़कों को,
कुचलेंगे बाग़ों के फूलों को,
करेंगे हमारे गुलिस्ताँ को नापाक।
रोको इन्हें,
इनके मिट्टी में सने पैर, मैले कपड़े,
नहीं इस अज़ीम शहर के क़ाबिल,
नहीं रहेगा ये शहर महफ़ूज़,
छुपना होगा घरों में,
बच्चों और औरतों को।
याद है तुमको पिछली बार?
ऐसे ही एक हुजूम ने,
जलाया था हमारा शहर,
औरतों को किया था ज़लील,
मासूम बच्चों की जलायी थी बस,
बंद कर दो दरवाज़े, रोको… मत आने दो शहर में।
मगर रुको, ज़रा ठहरो तो,
ये कैसी फ़ौज है? ये कैसा हुजूम है?
नहीं है हाथ में इनके कोई हथियार,
कोई बंदूक़, चाक़ू या तलवार,
हाँ, अगर हाथ में है, तो है एक लाठी,
जिसका सहारा लेकर बढ़ रहे हैं।
इनके डगमगाते, लंगड़ाते क़दम,
जिसका सहारा लेकर बढ़ रहे हैं,
बच्चे, औरतें और बूढ़े।
इनके धूल भरे चेहरों पर नहीं कोई वहशत,
अगर कुछ है, तो है,
दर्द और भूख की गहरी लकीरें,
और नंगे पैरों में हैं छाले,
जो ख़ून से लिख रहे हैं,
सड़क पर इनके हौसले की दास्तान।
अरे। ये तो हम जैसे ही हैं,
ज़िंदगी की जद्दोजहद में,
हैरान, परेशान, हलकान।
अरे। ये तो हैं हमारे ही किसान,
आए हैं माँगने अपना हक़,
आये हैं याद दिलाने,
वे वायदे जिन्हें हर पाँच साल में करते हैं,
और फिर भूल जाते हैं हमारे हुक्मरान।
अरे, खोल दो दरवाजे, आने दो इनको,
लगाओ इनके छालों पर मल्हम,
उठो, बढ़ कर करो इनका एहतराम।
मिलाओ इनकी आवाज में अपनी आवाज,
जब मिलेगी, इनकी आवाज़ से अवाम की आवाज़,
जब कसेंगी हमारी भी मुट्ठियाँ, उठेंगे बाजू,
जब मिलेंगे हमारे भी क़दम, इन क़दमों के साथ,
तो शायद जागेंगे हमारे हुक्मरान,
तब शायद मिलेगा इन्हें इंसाफ़।